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Wednesday, 5 February 2014

श्री साईबाबा की कथाएँ / Stories of Shri SAI BABA

ॐ साई श्री साई जय जय  साई
 


~~Stories of Shri SAI BABA~~

Mr.Sapatnekar went ahead to take darshan. He was again welcomed with the former Get out." This time he was more penitent and persevering. He said that Baba's displeasure was due to his past deeds and resolved to make amends for the same. He determined to see Baba alone and ask his pardon for his past actions. This he did. He placed his head on Baba's feet and Baba placed His hand on it and Sapatnekar sat stroking Baba's leg. Then a shepherdess came and sat massaging Baba's waist. Baba in his characteristic way began to tell the story of a bania. He related the various vicissitudes of all his life, including the death of his only son. Sapatnekar was surprised to see that the story which Baba related was his own, and he wondered how Baba knew every detail of it. He came to know that He was omniscient and knew the hearts of all. When this thought crossed his mind, Baba still addressing the shepherdess and pointing to Sapatnekar said - This fellow blames Me and charges Me with killing his son. Do I kill people's children? Why does this fellow come to the Masjid and cry? Now I will do this I will again bring that very child back in his wife's womb." WIth these words He placed His blessing and on his head and comforted him saying - These feet are old and holy, you are care-free now; place entire faith in Me and you will soon get your object." Sapatnekar was much moved with emotion, he bathed Baba's feet with his tears and then returned to his residence.

Then he made preparations of worship and naivedya and came with his wife to the Masjid. He offered all this to Baba daily and accepted prasad from Him. There was a crowd in the Masjid and Sapatnekar went there and saluted Baba again and again. Seeing heads clashing against heads Baba said to Sapatnekar - Oh, why do you prostrate yourself now and then? The one Namaskar offered with love and humility is enough." Then Sapatnekar witnessed that night the chavadi procession described before. In that procession Baba looked like a veritable Pandurang (Vithal).

At parting next day, Sapatnekar thought that he should first pay one rupee as dakshina and if Baba asked again, instead of saying no, he should pay one more, reserving with him sufficient amount as expenses for the journey. When he went to the Masjid and offered one rupee, Baba asked for another as per his intention and when it was paid, Baba blessed him him saying - Take the coconut, put it in your wife's oti (upper fold of her sari), and go away at ease without the least anxiety." He did so, and within a year a son was born to him and with an infant of 8 months the pair came to Shirdi, placed it at Baba's feet and prayed thus -  Sainath, we do not know how to redeem Your obligations, therefore we prostrate ourselves before You, bless us poor helpless fellows, henceforth let Your holy feet be our sole refuge. Many thoughts and ideas trouble us in waking and dream states, so turn away our minds from them to Your bhajan and bless us."

The son was named Murlidhar. Two others (Bhaskar and Dinkar) were born afterwards. The Sapatnekar pair thus realized that Baba's words were never untrue and unfulfilled, but turned out literally true.  



~~श्री साईबाबा की कथाएँ~~

~~संतति-दान~~
श्री. सपटणेकर दर्शनों के लिए आगे बढ़, परन्तु उनका पूर्वोक्त वचनों से ही स्वागत हुआ कि बाहर निकल जाओ । इस बार वे बहुत धैर्य और नम्रता धारण करके आये थे । उन्होंने कहा कि पिछले कर्मों के कारण ही बाबा मुझसे अप्रसन्न है और उन्होंने अपना चरित्र सुधारने का निश्चय कर लिया और बाबा से एकान्त में भेंट करके अपने पिछले कर्मों की क्षमा माँगने का निश्चय किया । उन्होंने वैसा ही किया भी और अब जब उन्होंने अपना मस्तक उनके श्रीचरमणों पर रखा तो बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया । अब सपटणेकर उनके चरण दबाते हुए बैठे ही थे कि इतने में एक गड़ेरिन आई और बाबा की कमर दबाने लगी । तब वे सदैव की भाँति एक बनिये की कहानी सुनाने लगे । जब उन्होंने उसके जीवन के अनेकों परिवर्तन तथा उसके इकलौते पुत्र की मृत्यु का हाल सुनाया तो सपटणेकर को अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि जो कथा वे सुना रहे है, वह तो मेरी ही है । उन्हें बड़ा अचम्भा हुआ कि उनको मेरे जीवन की प्रत्येक बात का पता कैसे चल गया । अब उन्हं विदित हो गया कि बाबा अन्तर्यामी है और सबके हृदय का पूरा-पूरा रहस्य जानते है । यह विचार उनके मन में आया ही था कि गड़ेरिन से वार्तालाप चालू रखते हुए बाबा सपटणेकर की ओर संकेत कर कहने लगे कि यह भला आदमी मुझ पर दोषारोपण करता है कि मैंने ही इसके पुत्र को मार डाला है । क्या मैं लोगों के बच्चों के प्राण-हरण करता हूँ । फिर ये महाशय मसजिद में आकर अब क्यों चीख-पुकार मचाते है । अब मैं एक काम करुँगा । अब मैं उसी बालक को फिर से इनकी पत्नी के गर्भ में ला दूँगा । - ऐसा कहकर बाबा ने अपना वरद हस्त सपटणेकर के सिर पर रखा और उसे सान्त्वना देते हुए काह कि '' ये चरण अधिक पुरातन तथा पवित्र है । जब तुम चिंता से मुक्त होकर मुझ पर पूरा विश्वास करोगे, तभी तुम्हें अपने ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी '' । सपटणेकर का हृदय गदरगद हो उठा । तब अश्रुधारा से उनके चरण धोकर वे अपने निवासस्थान पर लौट आये और फिर पूजन की तैयारी कर नैवेघ आदि लेकर वे सपत्नीक मसजिद में आये । वे इसी प्रकार नित्य नैवेघ चढ़ाते और बाबा से प्रसाद ग्रहण करते रहे । मसजिद में अपार भीड़ होते हुए भी वे वहाँ जाकर उन्हें बार-बार नमस्कार करते थे । एक दूसरे से सिर टकराते देखकर बाब ने उनसे कहा कि " प्रेम तथा श्रद्घा द्घारा किया हुआ एक ही नमस्कार मुझे पर्याप्त है " उसी रात्रि को उन्हें चावड़ी का उत्सव देखने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्हें बाबा ने पांडुरंग के रुप में दर्शन दिये ।

जब वे दूसरे दिन वहाँ से प्रस्थान करने लगे तो उन्होंने विचार किया कि पहले दक्षिणा में बाबा को एक रुपया दूँगा । यदि उन्होंने और माँगे तो अस्वीकार करने के बजाय एक रुपया और भेंट में चढ़ा दूँगा । फिर भी यात्रा के लिये शेष द्रव्यराशि पर्याप्त होगी । जब उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा को एक रुपया दक्षिणा दी तो बाबा ने भी उनकी इच्छा जानकर एक रुपया उनसे और माँगा । जब सपटणेकर ने उसे सहर्ष दे दिया तो बाबा ने भी उन्हें आर्शीवाद देकर कहाकि यह श्रीफल ले जाओ और इसे अपनी पत्नी की गोद में रखकर निश्चिंत होकर घर जाओं । उन्होंने वैसा ही किया और एक वर्ष के पश्चात ही उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ । आठ मास का शिशु लेकर वह दम्पति फिर शिरडी को आये और बाबा के चरणों पर बालक को रखकर फिर इस प्रकार प्रर्थना करने लगे कि हे श्री साईनाथ । आपके ऋण हम किस प्रकार चुका सकेंगें । आपके श्री चरणों में हमारा बार-बार प्रणाम है । हम दीनों पर आप सदैव कृपा करते रहियेगा, क्योंकि हमारे मन में सोते-जागते हर समय न जाने क्या-क्या संकल्प-विकल्प उठा करते है । आपके भजन में ही हमारा मन मग्न हो जाये, ऐसा आर्शीवाद दीजिये ।

उस पुत्र का नाम मुरलीधर रखा गया । बाद में उनके दो पुत्र (भास्कर और दिनकर) और उत्पन्न हुए । इस प्रकार सपटणेकर दम्पति को अनुभव हो गया कि बाबा के वचन कभी असत्य और अपूर्ण नहीं निकले ।

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