ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं
सुगम पथः सनन्तों की कथाओं का श्रवण करना और उनका समागम (अध्याय - 10)
यघपि बाहय दृष्टि से श्री साईबाबा का आचरण सामान्य पुरुषों के सदृश ही था, परन्तु उनके कार्यों से उनकी असाधारण बुद्घिमत्ता और चतुराई स्पष्ट ही प्रतीत होती थी । उनके समस्त कर्म भक्तों की भलाई के निमित्त ही होते थे । उन्होने कभी भी अपने भक्तों को किसी आसन या प्राणायाम के नियमों अथवा किसी उपासना का आदेश कभी नहीं दिया और न उनके कानों में कोई मन्त्र ही फूँका । उनका तो सभी के लिये यही कहना था कि चातुर्य त्याग कर सदैव साई साई यही स्मरण करो । इस प्रकार आचरण करने से समस्त बन्धन छूट जायेंगे और तुम्हें मुक्ति प्राप्त हो जायेगी । पंचामि, तप, त्याग, स्मरण, अष्टांग योग आदि का साध्य होना केवल ब्राहमणों को ही सम्भव है, अन्य वर्णों के लिये नहीं ।
मन का कार्य विचार करना है । बिना विचार किये वह एक क्षण भी नहीं रह सकता । यदि तुम उसे किसी विषय में लगा दोगे तो वह उसी का चिन्तन करने लगेगा और यदि उसे गुरु को अर्पण कर दोगे तो वह गुरु के सम्बन्ध में ही चिन्तन करता रहेगा । आप लोग बहुत ध्यानपूर्वक साई की महानता और श्रेष्ठता श्रवण कर ही तुके है । यह स्वाभाविक स्मरण और पूजन ही साई का कीर्तन है । सन्तों की कथा का स्मरण उतना कठिन नहीं, जितना कि अन्य साधनाओं का, जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है । ये कथाएँ सासारिक भय को निर्मूल कर आध्यात्मिक पथ पर आरुढ़ करती है । इसलिये इन कथाओं काहमेशा श्रवण और मनन करो तथा आचरण में भी लाओ । यदि इन्हें कार्यान्वित किया गया तो न केवन ब्राहमण, वरन स्त्रियाँ और अन्य दलित जातियाँ भी शुदृ और पावन हो जायेंगी । सासारिक कार्यों में लगे रहने पर भी अपना चित्त साई और उनकी कथाओं में लगाये रहो । तब तो यह निश्चत है कि वे कृपा अवश्य करेंगे । यह मार्ग अति सरल होने पर भी क्या कारण है कि सब कोई इसका अवलम्बन नहीं करते । कारण केवल यह है कि ईश-कृपा के अभाववश लोगों मे सन्त कथाएँ श्रवण करने की रुचि उत्पन्न नहीं होती । ईश्वर की कृपा से ही प्रत्येक कार्य सुचारु एवम सुंदर ढंग से चलता है । सन्तों की कथा का श्रवणे ही सन्तसमागम सदृश है । सन्त-सानिध्य का महत्व अति महान है । उससे दैहिक वुद्घि, अहंकार और जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति, हो जाती है । हृदय की समस्त ग्रंथियाँ खुल जाती है और ईश्वर से मिलन हो जाता है, जोकि चैतन्यघन स्वरुप है । विषयों से निश्चय ही विरक्ति बढ़ती है तथा दुःखों और सुखों में स्थिर रहने की शक्ति प्राप्त हो जाती है और आध्यात्मिक उन्नति सुलभ हो जाती है । यदि तुम कोई साधन जैसे नामस्मरण, पूजन या भक्ति इत्यादि नहीं करते, परन्तु अनन्य भाव से केवल सन्तों के ही शरणागत हो जाओ तो वे तुम्हें आसानी से भवसागर के उस पार उतार देंगे ।
इसी कार्य के निमित्त ही सन्त विश्व में प्रगट होते है । पवित्र नदियाँ – गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि जो संसार के समस्त पापों को धो देती है, वे भी सदैव इच्छा करती है कि कोई महात्मा अपने चरण-स्पर्श से हमें पावन करे । ऐसा सन्तों का प्रभाव है । गत जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही श्री साई चरणों की प्राप्ति संभव है ।
माया की अभेघ शक्ति (अध्याय -13)
बाबा के शब्द सदैव संक्षिप्त, अर्थपूर्ण, गूढ़ और विदृतापूर्ण तथा समतोल रहते थे । वे सदा निश्चिंत और निर्भय रहते थे । उनका कथन था कि मैं फकीर हूँ, न तो मेरे स्त्री ही है और न घर-द्घार ही । सब चिंताओं को त्याग कर, मैं एक ही स्थान पर रहता हूँ । फिर भी माया मुझे कष्ट पहुँचाया करती हैं । मैं स्वयं को तो भूल चुका हूँ, परन्तु माया को कदापि नहीं भूल सकता, क्योंकि वह मुझे अपने चक्र में फँसा लेती है । श्रीहरि की यह माया ब्रहादि को भी नहीं छोड़ती, फर मुझ सरीखे फकीर का तो कहना ही क्या हैं । परन्तु जो हरि की शरण लेंगे, वे उनकी कृपा से मायाजाल से मुक्त हो जायेंगे ।
इस प्रकार बाबा ने माया की शक्ति का परिचय दिया । भगवान श्रीकृष्ण भागवत में उदृव से कहते कि सन्त मेरे ही जीवित स्वरुप हैं और बाबा का भी कहना यही था कि ''वे भाग्यशाली, जिलके समस्त पाप नष्ट हो गये हो, वे ही मेरी उपासना की ओर अग्रसर होते है, यदि तुम केवल "साई साई" का ही स्मरण करोगे तो मैं तुम्हें भवसागर से पार उतार दूँगा । इन शब्दों पर विश्वास करो, तुम्हें अवश्य लाभ होगा । मेरी पूजा के निमित्त कोई सामग्री या अष्टांग योग की भी आवश्यकता नहीं है । मैं तो भक्ति में ही निवास करता हूँ । "
शामा और विष्नुसहस्त्रनाम (अध्याय - 27)
शामा बाबा के अंतरंग भक्त थे । अस कारण बाबा उन्हें एक विचित्र ढंग से बिष्णुसहस्त्रनाम प्रसादरुप देने की कृपा करना चाहते थे । तभी एक रामदासी आकर कुछ दिन शिरडी में ठहरा ।
वह नित्य नियमानुसार प्रातःकाल उठता और हाथ मुँह धोने के पश्चात् स्नान कर भगवा वस्त्र धारण करता तथा शरीर पर भस्म लगाकर विष्णुसहस्त्रनाम का जाप किया करता था । वह अध्यात्मरामायम का भी श्रद्घापूर्वक नित्य पाठ किया करता था और बहुधा इन्हीं ग्रन्थों को ही पढ़ा करता था । कुछ दिनों के पश्चात् बाबा ने शामा को भी विष्णुसहस्त्रनाम से परिचित कराने का विचार कर रामदासी को अपने समीप बुलाकर उससे कहा कि मेरे उदर में अत्यन्त पीड़ा हो ररही है और जब तक मैं सोलामुखी का सेवन न करुँगा, तब तक मेरा कष्ट दूर न होगा । तब रामदासी ने अपना पाठ स्थगित कर दिया और वह औषधि लाने बाजार चला गया । उसी प्रकार बाबा अपने आसन से उठे और जहाँ वह पाठ किया करते थे, वहाँ जाकर उन्होंने विष्णुसहस्त्रनाम की वह पुस्तिका उठाई और पुनः अपने आसन पर विराजमान होकर शामा से कहने लगे कि यह पुस्तक अमूल्य और मनोवांछित फल देने वाली है । इसलिये मैं तुम्हें इसे प्रदान कर रहा हूँ, ताकि तुम इसका नित्य पठन करो । एक बार जब मैं अधिक रुग्ण था तो मेरा हृदय धड़कने लगा । मेरे प्राणपखेरु उड़ना ही चाहते थे कि उसी समय मैंनें इस सदग्रन्थ को अपने हृदय पर रख लिया । कैसा सुख पहुँचाया इसने । उस समय मुझे ऐसा ही भान हुआ, मानों अल्लाह ने स्वयं ही पृथ्वी पर आकर मेरी रक्षा की । इस कारण यह ग्रन्थ मैं तुम्हें दे रहा हूँ । इसे थोड़ा धीरे-धीरे, कम से कम एक श्लोक प्रतिदिन अवश्य पढ़ना, जिससे तुम्हारा बहुत भला होगा । तब शामा कहने लगे कि मुझे इस ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं क्योंकि इस का स्वामी रामदासी एक पागल, हठी और अतिक्रोधी व्यक्ति है, जो व्यर्थ ही अभी आकर लड़ने को तैयार हो जायेगा । अल्पशिक्षित होने के नाते, मैं संस्कृत भाषा में लिखित इस ग्रन्थ को पढ़ने में भी असमर्थ हूँ |
शामा की धारणा थी कि बाबा मेरे और रामदासी के बीच मनमुटाव करवाना चाहते थे । इसलिये यह नाटक रचा है । बाबा का विचार उनके प्रति क्या था, यह उनकी समझ में न आया । बाबा येन केन प्रकारेण विष्णुसहस्त्रनाम उसके कंठ में उतार देना चाहते थे । वे तो अपने एक अल्पशिक्षित अंतरंग भक्त को सांसारिक दुःखों से मुक्त कर देना चाहते थे । ईश्वर-नाम के जप का महत्व तो सभी को विदित हीहै, जो हमें पापों से बचाकर कुवृत्तियों से हमारी रक्षा कर, जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से छुड़ा देता है । यह आत्मशुद्घि के लिये एक उत्तम साधन है, जिसमें न किसी सामग्री की आवश्यकता हौ और न किसी नियम के बन्धन की । इससे सुगम और प्रभावकारी साधन अन्य कोई नहीं । बाबा की इच्छ तो शामा से यह साधना कराने की थी, परन्तु शामा ऐसा न चाहते थे, इसीलिये बाबा ने उनपर दबाव डाला । ऐसा बहुधा सुनने में आया है कि बहुत पहले श्री एकनाथ महाराज ने भी अपने एक पड़ोसी ब्राहमण से विष्णुसहस्त्रनाम का जप करने के लिये आग्रह कर उसकी रक्षा की थी । विष्णुसहस्त्रनाम का जप चित्तशुद्घि के लिये एक श्रेष्ठ तथा स्पष्ट मार्ग है । इसलिये बाबा ने शामा को अनुरोधपूर्वक इसके जप में प्रवृत्त किया ।
रामदासी बाजार से तुरन्त सोनामुखी लेकर लौट आया । अण्णा चिंचणीकर, जो वहीं उपस्थित थे, प्रयः पूरे नारद मुनि ही थे और उन्होंने उक्त घटना का सम्पूर्ण वृत्तांत रामदासी को बता दिया ।रामदासी क्रोधावेश में आकर शामा की ओर लपका और कहने लगे कि यह तुम्हारा ही कार्य है, जो तुमने बाबा के द्घारा मुझे उदर पीड़ा के बहाने औषधि लेने को भेजा । यदि तुमने पुस्तक न लौटाई तो मैं तुम्हारा सिर तोड़ दूँगा । शामा ने उसे शान्तुपूर्वक समझाया, परन्तु उनक कहना व्यर्थे ही हुआ ।
तब बाबा प्रेमपूर्वक बोले कि अरे रामदासी, यह क्या बात हैं । क्यों उपद्रव कर रहे हो । क्या शामा अपना बालक नहीं है । तुम उसे व्यर्थ ही क्यों गाली दे रहे हो । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारी प्रकृति ही उपद्रवी है । क्या तुम नम्र और मृदुल वाणी नहीं बोल सकते । तुम नित्य प्रति इन पवित्र ग्रन्थों का पाठ किया करते हो और फिर भी तुम्हारा चित्त अशुदृ ही है । जब तुम्हारी इच्छायें ही तुम्हारे वश में नहीं है तो तुम रामदासी कैसे । तुम्हें तो समस्त वस्तुओं से अनासक्त (वैराग्य) होना चाहिये । कैसी विचित्र बात है कि तुम्हें इस पुस्तक पर इतना अधिक मोह है । सच्चे रामदासी को तो ममता त्याग कर समदर्शी होना चाहिये । तुम तो अभी बालक शामा से केवल एक छोटी सी पुस्तक के लिये झगड़ा कर रहे थे । जाओ, अपने आसन पर बैठो । पैसों से पुस्तकें तो अनेक प्राप्त हो सकती है, परन्तु मनुष्य नहीं । उत्तम विचारक बनकर विवेकशील होओ । पुस्तक का मूल्य ही क्या है और उससे शामा को क्या प्रयोजन । मैंने स्वयं उठकर वह पुस्तक उसे दी थी, यह सोचकर कि तुम्हें तो यह पुस्तक पूणर्तः कंठस्थ है ।
शामा को इसके पठन से कुछ लाभ पहुँचे, इसलिये मैंने उसे दे दी । बाबा के ये शब्द कितने मृदु और मार्मिक तथा अमृततुल्य है । इनका प्रभाव रामदासी पर पड़ा । वह चुप हो गया और फिर शामा से बोला कि मैं इसके बदले में पंचरत्नी गीता की एक प्रति स्वीकार कर लूँगा । तब शामा भी प्रसन्न होकर कहने लगे कि एक ही क्यो, मैं तो तुम्हें उसके बदले में 10 प्रतियाँ देने को तैयार हूँ ।
इस प्रकार यह विवाद तो शान्त हो गया, परन्तु अब प्रश्न यह आया कि रामदासी नें पंचरत्नी गीता के लिये-एक ऐसी पुस्तक जिसका उसे कभी ध्यान भी न आया था, इतना आग्रह क्यों किया और जो मसजिद में हर दिन धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करता हो, वह बाबा के समक्ष ही इतना उत्पात करने पर क्यों उतारु हो गया । हम नहीं जानते कि इस दोष का निराकरण कैसे करें और किसे दोषी ठहरावें । हम तो केवल इतना ही जान सके कि यदि इस प्रणाली काअनुसरण न किया गया होता तो विषय का महत्व और ईश्वर नाम की महिमा तथा शामा को विष्णुसहस्त्रनाम के पठन का शुभ अवसर ही प्राप्त न होता । इससे यही प्रतीत होता है कि बाबा के उपदेश की शैली और उसकी प्रकि्या अद्घितीय है । शामा ने धीरे-धीरे इस ग्रन्थ का इतना अध्ययन कर लिया और उन्हें इस विषय का इतना ज्ञान हो गया कि वह श्री मान् बूटीसाहेब के दामाद प्रोफेसर जी.जी. नारके, एम.ए. (इंजीनियरिंग कालेज, पूना) को भी उसका यथार्थ अर्थ समझाने में पूर्ण सफल हुए ।
यघपि बाहय दृष्टि से श्री साईबाबा का आचरण सामान्य पुरुषों के सदृश ही था, परन्तु उनके कार्यों से उनकी असाधारण बुद्घिमत्ता और चतुराई स्पष्ट ही प्रतीत होती थी । उनके समस्त कर्म भक्तों की भलाई के निमित्त ही होते थे । उन्होने कभी भी अपने भक्तों को किसी आसन या प्राणायाम के नियमों अथवा किसी उपासना का आदेश कभी नहीं दिया और न उनके कानों में कोई मन्त्र ही फूँका । उनका तो सभी के लिये यही कहना था कि चातुर्य त्याग कर सदैव साई साई यही स्मरण करो । इस प्रकार आचरण करने से समस्त बन्धन छूट जायेंगे और तुम्हें मुक्ति प्राप्त हो जायेगी । पंचामि, तप, त्याग, स्मरण, अष्टांग योग आदि का साध्य होना केवल ब्राहमणों को ही सम्भव है, अन्य वर्णों के लिये नहीं ।
मन का कार्य विचार करना है । बिना विचार किये वह एक क्षण भी नहीं रह सकता । यदि तुम उसे किसी विषय में लगा दोगे तो वह उसी का चिन्तन करने लगेगा और यदि उसे गुरु को अर्पण कर दोगे तो वह गुरु के सम्बन्ध में ही चिन्तन करता रहेगा । आप लोग बहुत ध्यानपूर्वक साई की महानता और श्रेष्ठता श्रवण कर ही तुके है । यह स्वाभाविक स्मरण और पूजन ही साई का कीर्तन है । सन्तों की कथा का स्मरण उतना कठिन नहीं, जितना कि अन्य साधनाओं का, जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है । ये कथाएँ सासारिक भय को निर्मूल कर आध्यात्मिक पथ पर आरुढ़ करती है । इसलिये इन कथाओं काहमेशा श्रवण और मनन करो तथा आचरण में भी लाओ । यदि इन्हें कार्यान्वित किया गया तो न केवन ब्राहमण, वरन स्त्रियाँ और अन्य दलित जातियाँ भी शुदृ और पावन हो जायेंगी । सासारिक कार्यों में लगे रहने पर भी अपना चित्त साई और उनकी कथाओं में लगाये रहो । तब तो यह निश्चत है कि वे कृपा अवश्य करेंगे । यह मार्ग अति सरल होने पर भी क्या कारण है कि सब कोई इसका अवलम्बन नहीं करते । कारण केवल यह है कि ईश-कृपा के अभाववश लोगों मे सन्त कथाएँ श्रवण करने की रुचि उत्पन्न नहीं होती । ईश्वर की कृपा से ही प्रत्येक कार्य सुचारु एवम सुंदर ढंग से चलता है । सन्तों की कथा का श्रवणे ही सन्तसमागम सदृश है । सन्त-सानिध्य का महत्व अति महान है । उससे दैहिक वुद्घि, अहंकार और जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति, हो जाती है । हृदय की समस्त ग्रंथियाँ खुल जाती है और ईश्वर से मिलन हो जाता है, जोकि चैतन्यघन स्वरुप है । विषयों से निश्चय ही विरक्ति बढ़ती है तथा दुःखों और सुखों में स्थिर रहने की शक्ति प्राप्त हो जाती है और आध्यात्मिक उन्नति सुलभ हो जाती है । यदि तुम कोई साधन जैसे नामस्मरण, पूजन या भक्ति इत्यादि नहीं करते, परन्तु अनन्य भाव से केवल सन्तों के ही शरणागत हो जाओ तो वे तुम्हें आसानी से भवसागर के उस पार उतार देंगे ।
इसी कार्य के निमित्त ही सन्त विश्व में प्रगट होते है । पवित्र नदियाँ – गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि जो संसार के समस्त पापों को धो देती है, वे भी सदैव इच्छा करती है कि कोई महात्मा अपने चरण-स्पर्श से हमें पावन करे । ऐसा सन्तों का प्रभाव है । गत जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही श्री साई चरणों की प्राप्ति संभव है ।
माया की अभेघ शक्ति (अध्याय -13)
बाबा के शब्द सदैव संक्षिप्त, अर्थपूर्ण, गूढ़ और विदृतापूर्ण तथा समतोल रहते थे । वे सदा निश्चिंत और निर्भय रहते थे । उनका कथन था कि मैं फकीर हूँ, न तो मेरे स्त्री ही है और न घर-द्घार ही । सब चिंताओं को त्याग कर, मैं एक ही स्थान पर रहता हूँ । फिर भी माया मुझे कष्ट पहुँचाया करती हैं । मैं स्वयं को तो भूल चुका हूँ, परन्तु माया को कदापि नहीं भूल सकता, क्योंकि वह मुझे अपने चक्र में फँसा लेती है । श्रीहरि की यह माया ब्रहादि को भी नहीं छोड़ती, फर मुझ सरीखे फकीर का तो कहना ही क्या हैं । परन्तु जो हरि की शरण लेंगे, वे उनकी कृपा से मायाजाल से मुक्त हो जायेंगे ।
इस प्रकार बाबा ने माया की शक्ति का परिचय दिया । भगवान श्रीकृष्ण भागवत में उदृव से कहते कि सन्त मेरे ही जीवित स्वरुप हैं और बाबा का भी कहना यही था कि ''वे भाग्यशाली, जिलके समस्त पाप नष्ट हो गये हो, वे ही मेरी उपासना की ओर अग्रसर होते है, यदि तुम केवल "साई साई" का ही स्मरण करोगे तो मैं तुम्हें भवसागर से पार उतार दूँगा । इन शब्दों पर विश्वास करो, तुम्हें अवश्य लाभ होगा । मेरी पूजा के निमित्त कोई सामग्री या अष्टांग योग की भी आवश्यकता नहीं है । मैं तो भक्ति में ही निवास करता हूँ । "
शामा और विष्नुसहस्त्रनाम (अध्याय - 27)
शामा बाबा के अंतरंग भक्त थे । अस कारण बाबा उन्हें एक विचित्र ढंग से बिष्णुसहस्त्रनाम प्रसादरुप देने की कृपा करना चाहते थे । तभी एक रामदासी आकर कुछ दिन शिरडी में ठहरा ।
वह नित्य नियमानुसार प्रातःकाल उठता और हाथ मुँह धोने के पश्चात् स्नान कर भगवा वस्त्र धारण करता तथा शरीर पर भस्म लगाकर विष्णुसहस्त्रनाम का जाप किया करता था । वह अध्यात्मरामायम का भी श्रद्घापूर्वक नित्य पाठ किया करता था और बहुधा इन्हीं ग्रन्थों को ही पढ़ा करता था । कुछ दिनों के पश्चात् बाबा ने शामा को भी विष्णुसहस्त्रनाम से परिचित कराने का विचार कर रामदासी को अपने समीप बुलाकर उससे कहा कि मेरे उदर में अत्यन्त पीड़ा हो ररही है और जब तक मैं सोलामुखी का सेवन न करुँगा, तब तक मेरा कष्ट दूर न होगा । तब रामदासी ने अपना पाठ स्थगित कर दिया और वह औषधि लाने बाजार चला गया । उसी प्रकार बाबा अपने आसन से उठे और जहाँ वह पाठ किया करते थे, वहाँ जाकर उन्होंने विष्णुसहस्त्रनाम की वह पुस्तिका उठाई और पुनः अपने आसन पर विराजमान होकर शामा से कहने लगे कि यह पुस्तक अमूल्य और मनोवांछित फल देने वाली है । इसलिये मैं तुम्हें इसे प्रदान कर रहा हूँ, ताकि तुम इसका नित्य पठन करो । एक बार जब मैं अधिक रुग्ण था तो मेरा हृदय धड़कने लगा । मेरे प्राणपखेरु उड़ना ही चाहते थे कि उसी समय मैंनें इस सदग्रन्थ को अपने हृदय पर रख लिया । कैसा सुख पहुँचाया इसने । उस समय मुझे ऐसा ही भान हुआ, मानों अल्लाह ने स्वयं ही पृथ्वी पर आकर मेरी रक्षा की । इस कारण यह ग्रन्थ मैं तुम्हें दे रहा हूँ । इसे थोड़ा धीरे-धीरे, कम से कम एक श्लोक प्रतिदिन अवश्य पढ़ना, जिससे तुम्हारा बहुत भला होगा । तब शामा कहने लगे कि मुझे इस ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं क्योंकि इस का स्वामी रामदासी एक पागल, हठी और अतिक्रोधी व्यक्ति है, जो व्यर्थ ही अभी आकर लड़ने को तैयार हो जायेगा । अल्पशिक्षित होने के नाते, मैं संस्कृत भाषा में लिखित इस ग्रन्थ को पढ़ने में भी असमर्थ हूँ |
शामा की धारणा थी कि बाबा मेरे और रामदासी के बीच मनमुटाव करवाना चाहते थे । इसलिये यह नाटक रचा है । बाबा का विचार उनके प्रति क्या था, यह उनकी समझ में न आया । बाबा येन केन प्रकारेण विष्णुसहस्त्रनाम उसके कंठ में उतार देना चाहते थे । वे तो अपने एक अल्पशिक्षित अंतरंग भक्त को सांसारिक दुःखों से मुक्त कर देना चाहते थे । ईश्वर-नाम के जप का महत्व तो सभी को विदित हीहै, जो हमें पापों से बचाकर कुवृत्तियों से हमारी रक्षा कर, जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से छुड़ा देता है । यह आत्मशुद्घि के लिये एक उत्तम साधन है, जिसमें न किसी सामग्री की आवश्यकता हौ और न किसी नियम के बन्धन की । इससे सुगम और प्रभावकारी साधन अन्य कोई नहीं । बाबा की इच्छ तो शामा से यह साधना कराने की थी, परन्तु शामा ऐसा न चाहते थे, इसीलिये बाबा ने उनपर दबाव डाला । ऐसा बहुधा सुनने में आया है कि बहुत पहले श्री एकनाथ महाराज ने भी अपने एक पड़ोसी ब्राहमण से विष्णुसहस्त्रनाम का जप करने के लिये आग्रह कर उसकी रक्षा की थी । विष्णुसहस्त्रनाम का जप चित्तशुद्घि के लिये एक श्रेष्ठ तथा स्पष्ट मार्ग है । इसलिये बाबा ने शामा को अनुरोधपूर्वक इसके जप में प्रवृत्त किया ।
रामदासी बाजार से तुरन्त सोनामुखी लेकर लौट आया । अण्णा चिंचणीकर, जो वहीं उपस्थित थे, प्रयः पूरे नारद मुनि ही थे और उन्होंने उक्त घटना का सम्पूर्ण वृत्तांत रामदासी को बता दिया ।रामदासी क्रोधावेश में आकर शामा की ओर लपका और कहने लगे कि यह तुम्हारा ही कार्य है, जो तुमने बाबा के द्घारा मुझे उदर पीड़ा के बहाने औषधि लेने को भेजा । यदि तुमने पुस्तक न लौटाई तो मैं तुम्हारा सिर तोड़ दूँगा । शामा ने उसे शान्तुपूर्वक समझाया, परन्तु उनक कहना व्यर्थे ही हुआ ।
तब बाबा प्रेमपूर्वक बोले कि अरे रामदासी, यह क्या बात हैं । क्यों उपद्रव कर रहे हो । क्या शामा अपना बालक नहीं है । तुम उसे व्यर्थ ही क्यों गाली दे रहे हो । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारी प्रकृति ही उपद्रवी है । क्या तुम नम्र और मृदुल वाणी नहीं बोल सकते । तुम नित्य प्रति इन पवित्र ग्रन्थों का पाठ किया करते हो और फिर भी तुम्हारा चित्त अशुदृ ही है । जब तुम्हारी इच्छायें ही तुम्हारे वश में नहीं है तो तुम रामदासी कैसे । तुम्हें तो समस्त वस्तुओं से अनासक्त (वैराग्य) होना चाहिये । कैसी विचित्र बात है कि तुम्हें इस पुस्तक पर इतना अधिक मोह है । सच्चे रामदासी को तो ममता त्याग कर समदर्शी होना चाहिये । तुम तो अभी बालक शामा से केवल एक छोटी सी पुस्तक के लिये झगड़ा कर रहे थे । जाओ, अपने आसन पर बैठो । पैसों से पुस्तकें तो अनेक प्राप्त हो सकती है, परन्तु मनुष्य नहीं । उत्तम विचारक बनकर विवेकशील होओ । पुस्तक का मूल्य ही क्या है और उससे शामा को क्या प्रयोजन । मैंने स्वयं उठकर वह पुस्तक उसे दी थी, यह सोचकर कि तुम्हें तो यह पुस्तक पूणर्तः कंठस्थ है ।
शामा को इसके पठन से कुछ लाभ पहुँचे, इसलिये मैंने उसे दे दी । बाबा के ये शब्द कितने मृदु और मार्मिक तथा अमृततुल्य है । इनका प्रभाव रामदासी पर पड़ा । वह चुप हो गया और फिर शामा से बोला कि मैं इसके बदले में पंचरत्नी गीता की एक प्रति स्वीकार कर लूँगा । तब शामा भी प्रसन्न होकर कहने लगे कि एक ही क्यो, मैं तो तुम्हें उसके बदले में 10 प्रतियाँ देने को तैयार हूँ ।
इस प्रकार यह विवाद तो शान्त हो गया, परन्तु अब प्रश्न यह आया कि रामदासी नें पंचरत्नी गीता के लिये-एक ऐसी पुस्तक जिसका उसे कभी ध्यान भी न आया था, इतना आग्रह क्यों किया और जो मसजिद में हर दिन धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करता हो, वह बाबा के समक्ष ही इतना उत्पात करने पर क्यों उतारु हो गया । हम नहीं जानते कि इस दोष का निराकरण कैसे करें और किसे दोषी ठहरावें । हम तो केवल इतना ही जान सके कि यदि इस प्रणाली काअनुसरण न किया गया होता तो विषय का महत्व और ईश्वर नाम की महिमा तथा शामा को विष्णुसहस्त्रनाम के पठन का शुभ अवसर ही प्राप्त न होता । इससे यही प्रतीत होता है कि बाबा के उपदेश की शैली और उसकी प्रकि्या अद्घितीय है । शामा ने धीरे-धीरे इस ग्रन्थ का इतना अध्ययन कर लिया और उन्हें इस विषय का इतना ज्ञान हो गया कि वह श्री मान् बूटीसाहेब के दामाद प्रोफेसर जी.जी. नारके, एम.ए. (इंजीनियरिंग कालेज, पूना) को भी उसका यथार्थ अर्थ समझाने में पूर्ण सफल हुए ।
ENGLISH TRANSLATION
The Easiest Path Hearing the stories of the Saints and Being in their Company (Chapter # 10)
Though Sai Baba acted outwardly like an ordinary man, His actions showed extraordinary intelligence and skill. Whatever He did, was done for the good of His devotees. He never prescribed any asan, regulation of breathing or any rites to His Bhaktas, nor did He blow any mantra into their ears. He told them to leave off all cleverness and always remember "Sai" "Sai". "If you did that" He said, "all your shackles would be removed and you would be free". Sitting between five fires, sacrifices, chantings, eight-fold Yoga are possible for the Brahmins only. They are of no use to the other classes.
The function of the mind is to think, it cannot remain for a minute without thinking. If you give it a Sense-object, it will think about it. If you give it to a Guru, it will think about Guru. You have heard most attentively the greatness, grandeur of Sai. This is the natural remembrance, worship and Kirtan of Sai. Hearing the stories of the Saints is not so difficult, as the other Sadhanas mentioned above. They (stories) remove all fear of this Samsar (worldly existence), and take you on to the spiritual path. So listen to these stories, meditate on them, and assimilate them. If this is done, not only the Brahmins, but women and lower clases will get pure and holy. You may do or attend to your worldy duties, but give your mind to Sai and His stories, and then, He is sure to bless you. This is the easiest path, but why do not all take to it? The reason is that without God's grace, we do not get the desire to listen to the stories of Saints. With God's grace everything is smooth and easy. Hearing the stories of the Saints is, in a way, keeping their company. The importance of the company of Saints is very great. It removes our body-consciousness and egoism, destroys completely the chain of our birth and death, cuts asunder all the knots of the heart, and takes us to God, Who is pure Consciousness. It certainly increases our non-attachment to sense-objects, and makes us quite indifferent to pleasures and pains, and leads us on the spiritual path. If you have no other Sadhana, such as uttering God's name, worship or devotion etc., but if you take refuge in them (Saints) whole-heartedly, they will carry you off safety across the ocean of wordly existence.
It is for this reason that the Saint manifest themselves in this world. even sacred rivers such as the Ganges, Godavari, Krishna and Kaveri etc., which wash away the sins of the world, desire that the Saints should come to them, for a bath and purify them. Such is the grandeur of the Saints. It is on account of the store of merit in past births that we have attained the feet of Sai Baba.
The Inscrutable Power of Maya (Chapter # 13)
Baba's words were always short, pithy, deep, full of meaning, efficient and well-balanced. He was ever content and never cared for anything. He said, "Though I have become a Fakir, have no house or wife, and though leaving off all cares, I have stayed at one place, the inevitable Maya teases Me often. Though I forgot Myself I cannot forget Her. She always envelops Me.This Maya (illusive power) of the Lord (Shri Hari) teases God Brahma and others; then what to speak of a poor Fakir like Me? Those who take refuge in the Lord wil be freed from Her clutches with his grace".
In such terms Baba spoke about the power of Maya. Lord Shri Krishna has said to Uddhava in the Bhagwat that the Saints are His living forms; and see what Baba had said for the welfare of His devotees: "Those who are fortunate and whose demerits have vanished; take to My worship. If you always say 'Sai, Sai' I shall take you over the seven seas; believe in these words, and you will be certainly benefited. I do not need any paraphernalia of worship - either eight-fold or sixteen-fold. I rest there where there is full devotion".
Shama and Vishnu-Sahasra-Nam (Chapter # 27)
Shama was a very intimate devotee of Baba and Baba wanted to favour him in a particular way by giving him a copy of Vishnu-Sahasra-Nam as Prasad. This was done in the following way. Once a Ramadasi (follower of Saint Ramadas) came to Shirdi and stayed for some time.
The routine he followed daily was as follows : He got up early in the morning, washed his face, bathed and then after wearing saffron-coloured clothes and besmearing himself with sacred ashes, read Vishnu-Sahasra-Nam (a book giving a thousand names in praise of Vishnu, and held second in importance to Bhagwad Geeta) and Adhyatma-Ramayana (Esoteric version of Rama's story) with faith. He read these books often and often and then after some days Baba thought of favouring and initiating Shama with Vishnu-Sahasra-Nam. He, therefore, called the Ramadasi to Him and said to him that, He was suffering from intense stomach-pain, and unless He took Senna-pods (Sona-mukhi, a mild purgative drug) the pain would not stop; so he should please go to the bazar and bring the drug. The Ramadasi closed his reading and went to the bazar. Then Baba descended from His seat, came to the Ramadasi's place of reading, took out the copy of Vishnu-Sahasra-Nam, and coming to His seat said to Shama- "Oh Shama, this book is very valuable and efficacious, so I present it to you, you read it. Once I suffered intensely and My heart began to palpitate and My life was in danger. At that critical time, I hugged this book to My heart and then, Shama, what a relief it gave me! I thought that Allah Himself came down and saved Me. So I give this to you, read it slowly, little by little, read daily one name at least and it will do you good." Shama replied that he did not want it, and that the owner of it, the Ramadasi who was a mad, obstinate and irritable fellow would certainly pick up a quarrel with him, besides, being a rustic himself, he could not read distinctly the Sanskrit (Devanagari) letters of the book.
Shama thought that Baba wanted to set him up against the Ramadasi by this act of His, but he had no idea of what Baba felt for him. Baba must have thought to tie this necklace of Vishu-Sahasra-Nam round the neck of Shama, as he was an intimate devotee, though a rustic, and thus save him from the miseries of the worldly existence. The efficacy of God's Name is well-known. It saves us from all sins and bad tendencies, frees us from the cycle of births and deaths. There is no easier sadhana than this. It is the best purifier of our mind. It requires no paraphernalia and no restrictions. It is so easy and so effective. This sadhana, Baba wanted Shama to practise, though he did not crave for it. So Baba forced this on him. It is also reported that long ago, Eknath Maharaj, similarly, forced this Vishnu-Sahasra-Nam on a poor Brahmin neighbour, and thus saved him. The reading and study of this Vishnu-Sahasra-Nam is a broad open way of purifying the mind, and hence Baba thrust this on His Shama.
The Ramadasi returned soon with the Seena-pods. Anna Chinchanikar, who was then present and who wanted to play the part of Narada (the Celestial Rishi who was well-known for setting up quarrels between Gods and demons and vice versa), informed him of what had happened. The Ramadasi at once flared up. He came down at once on Shama with all fury. He said that it was Shama who set Baba to send him away under the pretext of stomach-ache for bringing the medicine and thus got the book. He began to scold and abuse Shama and remarked that if the book be not returned, he would dash his head before him. Shama calmly remonstrated with him, but in vain.
Then Baba spoke kindly to him as follows - "Oh Ramadasi, what is the matter with you? Why are you so turbulent? Is not Shama our boy? Why do you scold him unnecessarily. How is it that you are so quarrelsome? Can you not speak soft and sweet words? You read daily these sacred books and still your mind is impure and your passions uncontrolled. What sort of a Ramadasi you are! You ought to be indifferent to all things. Is it not strange that you should covet this book so strongly? A true Ramadasi should have no 'mamata' (attachment) but have 'samata' (equality) towards all. You are now quarrelling with the boy Shama for a mere book. Go, take your seat, books can be had in plenty for money, but not men; think well and be considerate. What worth is your book? Shama had no concern with it. I took it up Myself and gave it to him. You know it by heart. I thought Shama might read it and profit thereby, and so I gave to it him."
How sweet were these words of Baba, soft, tender and nectar-like! Their effect was wonderful. The Ramadasi calmed down and said to Shama that he would take 'Panch-ratni' Geeta in return. Shama was much pleased and said - "Why one, I shall give ten copies in return".So the matter was ultimately compromised. The question for consideration is "Why should the Ramadasi press for Pancha-ratni Geeta, the God in which he never cared to know, and why should he, who daily read religious books in the Masjid in front of Baba, quarrel with Shama before Him?" We do not know how to apportion the blame and whom to blame. We only say that, had this procedure been not gone through, the importance of the subject, the efficacy of God's name and the study of Vishnu-Sahasra-Nam would not have been brought home to Shama. So we see that Baba's method, of teaching and initiating was unique. In this cases Shama did gradually study the book and mastered its contents to such an extent, that he was able to explain it to Professor G.G. Narke, M.A. of the College of Engineering, Poona, the son-in-law of Shriman Booty and a devotee of Baba.
Though Sai Baba acted outwardly like an ordinary man, His actions showed extraordinary intelligence and skill. Whatever He did, was done for the good of His devotees. He never prescribed any asan, regulation of breathing or any rites to His Bhaktas, nor did He blow any mantra into their ears. He told them to leave off all cleverness and always remember "Sai" "Sai". "If you did that" He said, "all your shackles would be removed and you would be free". Sitting between five fires, sacrifices, chantings, eight-fold Yoga are possible for the Brahmins only. They are of no use to the other classes.
The function of the mind is to think, it cannot remain for a minute without thinking. If you give it a Sense-object, it will think about it. If you give it to a Guru, it will think about Guru. You have heard most attentively the greatness, grandeur of Sai. This is the natural remembrance, worship and Kirtan of Sai. Hearing the stories of the Saints is not so difficult, as the other Sadhanas mentioned above. They (stories) remove all fear of this Samsar (worldly existence), and take you on to the spiritual path. So listen to these stories, meditate on them, and assimilate them. If this is done, not only the Brahmins, but women and lower clases will get pure and holy. You may do or attend to your worldy duties, but give your mind to Sai and His stories, and then, He is sure to bless you. This is the easiest path, but why do not all take to it? The reason is that without God's grace, we do not get the desire to listen to the stories of Saints. With God's grace everything is smooth and easy. Hearing the stories of the Saints is, in a way, keeping their company. The importance of the company of Saints is very great. It removes our body-consciousness and egoism, destroys completely the chain of our birth and death, cuts asunder all the knots of the heart, and takes us to God, Who is pure Consciousness. It certainly increases our non-attachment to sense-objects, and makes us quite indifferent to pleasures and pains, and leads us on the spiritual path. If you have no other Sadhana, such as uttering God's name, worship or devotion etc., but if you take refuge in them (Saints) whole-heartedly, they will carry you off safety across the ocean of wordly existence.
It is for this reason that the Saint manifest themselves in this world. even sacred rivers such as the Ganges, Godavari, Krishna and Kaveri etc., which wash away the sins of the world, desire that the Saints should come to them, for a bath and purify them. Such is the grandeur of the Saints. It is on account of the store of merit in past births that we have attained the feet of Sai Baba.
The Inscrutable Power of Maya (Chapter # 13)
Baba's words were always short, pithy, deep, full of meaning, efficient and well-balanced. He was ever content and never cared for anything. He said, "Though I have become a Fakir, have no house or wife, and though leaving off all cares, I have stayed at one place, the inevitable Maya teases Me often. Though I forgot Myself I cannot forget Her. She always envelops Me.This Maya (illusive power) of the Lord (Shri Hari) teases God Brahma and others; then what to speak of a poor Fakir like Me? Those who take refuge in the Lord wil be freed from Her clutches with his grace".
In such terms Baba spoke about the power of Maya. Lord Shri Krishna has said to Uddhava in the Bhagwat that the Saints are His living forms; and see what Baba had said for the welfare of His devotees: "Those who are fortunate and whose demerits have vanished; take to My worship. If you always say 'Sai, Sai' I shall take you over the seven seas; believe in these words, and you will be certainly benefited. I do not need any paraphernalia of worship - either eight-fold or sixteen-fold. I rest there where there is full devotion".
Shama and Vishnu-Sahasra-Nam (Chapter # 27)
Shama was a very intimate devotee of Baba and Baba wanted to favour him in a particular way by giving him a copy of Vishnu-Sahasra-Nam as Prasad. This was done in the following way. Once a Ramadasi (follower of Saint Ramadas) came to Shirdi and stayed for some time.
The routine he followed daily was as follows : He got up early in the morning, washed his face, bathed and then after wearing saffron-coloured clothes and besmearing himself with sacred ashes, read Vishnu-Sahasra-Nam (a book giving a thousand names in praise of Vishnu, and held second in importance to Bhagwad Geeta) and Adhyatma-Ramayana (Esoteric version of Rama's story) with faith. He read these books often and often and then after some days Baba thought of favouring and initiating Shama with Vishnu-Sahasra-Nam. He, therefore, called the Ramadasi to Him and said to him that, He was suffering from intense stomach-pain, and unless He took Senna-pods (Sona-mukhi, a mild purgative drug) the pain would not stop; so he should please go to the bazar and bring the drug. The Ramadasi closed his reading and went to the bazar. Then Baba descended from His seat, came to the Ramadasi's place of reading, took out the copy of Vishnu-Sahasra-Nam, and coming to His seat said to Shama- "Oh Shama, this book is very valuable and efficacious, so I present it to you, you read it. Once I suffered intensely and My heart began to palpitate and My life was in danger. At that critical time, I hugged this book to My heart and then, Shama, what a relief it gave me! I thought that Allah Himself came down and saved Me. So I give this to you, read it slowly, little by little, read daily one name at least and it will do you good." Shama replied that he did not want it, and that the owner of it, the Ramadasi who was a mad, obstinate and irritable fellow would certainly pick up a quarrel with him, besides, being a rustic himself, he could not read distinctly the Sanskrit (Devanagari) letters of the book.
Shama thought that Baba wanted to set him up against the Ramadasi by this act of His, but he had no idea of what Baba felt for him. Baba must have thought to tie this necklace of Vishu-Sahasra-Nam round the neck of Shama, as he was an intimate devotee, though a rustic, and thus save him from the miseries of the worldly existence. The efficacy of God's Name is well-known. It saves us from all sins and bad tendencies, frees us from the cycle of births and deaths. There is no easier sadhana than this. It is the best purifier of our mind. It requires no paraphernalia and no restrictions. It is so easy and so effective. This sadhana, Baba wanted Shama to practise, though he did not crave for it. So Baba forced this on him. It is also reported that long ago, Eknath Maharaj, similarly, forced this Vishnu-Sahasra-Nam on a poor Brahmin neighbour, and thus saved him. The reading and study of this Vishnu-Sahasra-Nam is a broad open way of purifying the mind, and hence Baba thrust this on His Shama.
The Ramadasi returned soon with the Seena-pods. Anna Chinchanikar, who was then present and who wanted to play the part of Narada (the Celestial Rishi who was well-known for setting up quarrels between Gods and demons and vice versa), informed him of what had happened. The Ramadasi at once flared up. He came down at once on Shama with all fury. He said that it was Shama who set Baba to send him away under the pretext of stomach-ache for bringing the medicine and thus got the book. He began to scold and abuse Shama and remarked that if the book be not returned, he would dash his head before him. Shama calmly remonstrated with him, but in vain.
Then Baba spoke kindly to him as follows - "Oh Ramadasi, what is the matter with you? Why are you so turbulent? Is not Shama our boy? Why do you scold him unnecessarily. How is it that you are so quarrelsome? Can you not speak soft and sweet words? You read daily these sacred books and still your mind is impure and your passions uncontrolled. What sort of a Ramadasi you are! You ought to be indifferent to all things. Is it not strange that you should covet this book so strongly? A true Ramadasi should have no 'mamata' (attachment) but have 'samata' (equality) towards all. You are now quarrelling with the boy Shama for a mere book. Go, take your seat, books can be had in plenty for money, but not men; think well and be considerate. What worth is your book? Shama had no concern with it. I took it up Myself and gave it to him. You know it by heart. I thought Shama might read it and profit thereby, and so I gave to it him."
How sweet were these words of Baba, soft, tender and nectar-like! Their effect was wonderful. The Ramadasi calmed down and said to Shama that he would take 'Panch-ratni' Geeta in return. Shama was much pleased and said - "Why one, I shall give ten copies in return".So the matter was ultimately compromised. The question for consideration is "Why should the Ramadasi press for Pancha-ratni Geeta, the God in which he never cared to know, and why should he, who daily read religious books in the Masjid in front of Baba, quarrel with Shama before Him?" We do not know how to apportion the blame and whom to blame. We only say that, had this procedure been not gone through, the importance of the subject, the efficacy of God's name and the study of Vishnu-Sahasra-Nam would not have been brought home to Shama. So we see that Baba's method, of teaching and initiating was unique. In this cases Shama did gradually study the book and mastered its contents to such an extent, that he was able to explain it to Professor G.G. Narke, M.A. of the College of Engineering, Poona, the son-in-law of Shriman Booty and a devotee of Baba.
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